बांद्रा मुंबई स्थित महबूब रिकॉर्डिंग स्टूडियो में संगीतकार उषा खन्ना पिछले छः घंटे से गायक येशुदास का इंतजार किये जा रही थीं , साजन बिना सुहागन(1978) के "मधुबन खुशबू देता है " गाने की रिकॉर्डिंग होनी थी, अचानक से मूसलाधार बारिश होने लगी, जो रुकने का नाम नहीं ले रही थी ,तेज बारिश और आँधी ने रिकॉर्डिंग टोली को मायूश कर यह मानने पर मजबूर कर दिया था की अब येशुदास रिकॉर्डिंग के लिए नहीं आ सकेंगे ,तभी एक गाड़ी वहां आकर रुकी ,दरवाजा खुला अंदर से येशुदास जो पूरी तरह से भींगे हुए थे उतरे ,स्टूडियो में मौजूद सभी के चेहरे खिल उठे ,बिना देर किये और अपने तबियत की परवाह किये ,रिकॉर्डिंग की, और ऐसा गाया ,की इंतजार के वो पल जो मायूशी में गुजरे थे ,याद नहीं रहे !
प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद (25 दिसम्बर 1919)मात्र 17 साल की उम्र में ही मुंबई संगीतकार बनने ,घरवालों को बिना बताये आ गए थे ,ये वो दौर था जब फिल्म या इससे जुड़े क्षेत्रों में जाने वालों को अच्छा नहीं समझा जाता था , इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है की जब घरवालों ने इनकी शादी तय की तो नौशाद से यह कहा की वधूपक्ष वालों को उन्होंने यह कहा है की लड़का दर्जी है और मुंबई में सिलाई का काम करता है ,और उनसे पूछे जाने पर उन्हें भी यहीं बताना है , इस तरह हुयी इनकी शादी !
जावेद अख्तर का नाम आते हीं प्रसिद्ध गीतकार के रूप में बनी इनकी छबि जेहन में कौंध जाती है ,पर जावेद साहब गीतकार बनने से पहले फिल्मों की कहानियां लिखते थे ,पर इनका नाम परदे पर नहीं आता था ,ये फिर भी खुश थे ! बाद में उनकी जोड़ी सलमान के पिता और इनके दोस्त सलीम खान के साथ सलीम-जावेद के रूप में बन गयी ! अमिताभ अभिनीत जंजीर की कहानी भी इसी जोड़ी ने लिखी और अमिताभ बच्चन के साथ-साथ इस जोड़ी का नाम प्रसिद्ध हो गया !
जावेद साहब उस वक्त भी शायरी करते थे पर उनकी शायरी उनकी डायरी तक हीं सिमित थी ,जब यश चोपड़ा ने फिल्म -सिलसिला बनाना शुरू किया ,तो किसी दोस्त के कहने पर जावेद को अपने बंगले पर बुलाकर कहा की आप कहानी के साथ -साथ अच्छी शायरी भी लिखते हैं ,मैं चाहता हूँ की" सिलसिला "के गीत आप हीं लिखें , और हाँ इस फिल्म से शिव-हरी की संगीत जोड़ी (शिव शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया) भी पहली बार संगीत क्षेत्र में कदम रख रहे हैं !
अगले दिन "देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए' "रिकॉर्ड हुआ, फिर उसके अगले दिन 'नीला आसमा सो गया..! इस तरह जावेद अख्तर कहानीकार के साथ-साथ गीतकार भी बन गए,और जो शायरी उनके डायरी में कैद थे फिल्मों के माध्यम से सामने आ गए !
मन्नाडे से जुड़ी दो रोचक घटनाएं उनके लिए हमेशा यादगार रहीं - एकबार जब फिल्म ' बसंत बहार(1956)" के "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फुले " गाने के लिए उन्हें शास्त्रीय संगीत के महान गायक भीमशेन जोशी को गायन में कमतर साबित करने के लिए गाने को कहा गया ,दरअशल फिल्म में नायक को गायन में जीतते हुए दिखाना था ,और गायक की आवाज़ के लिए मन्नाडे को चुना गया था !तब मन्नाडे ने मन हीं मन योजना बनायीं थी की अगले दिन से हीं वे बिना बताये पुणे चले जायेंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा की मन्नाडे कहाँ गायब हो गए ,और गाने की रिकॉर्डिंग किसी अन्य गायक से करा ली जाएगी !
इसी तरह फिल्म पड़ोसन(1968) के " एक चतुर नार कर के सिंगार" गाने के लिए उन्हें किशोर कुमार से हार जाने को कहा गया , तब फिल्म के निर्माता और निर्देशक अभिनेता महमूद ने दादा को समझाते हुए कहा था की दादा ये आप और मैं हीं नहीं सभी जानते हैं की आपको वास्तविक जीवन में नहीं फिल्म में नायक से हारना है ! हालाँकि किशोर द्वारा बनाये उस गाने के संगीत में सरगम और तान का वास्तविक संगीत से कोई लेना देना नहीं था !
संगीतकार मदन मोहन (ग़ज़ल विशेषज्ञ ) से जुड़ी ये दिलचस्प वाक्या गीतकार नक़्श लायलपुरी के लिए
हमेशा यादगार रही ,मदन मोहन नक़्श लायलपुरी के शायरी के बड़े प्रशंसक थे ,फिल्म "दिल की राहें" के लिए जब उन्हें संगीत बनाने की जिम्मेवारी सौपीं गयी तो उन्होंने फिल्म के गीत लिखने के लिए नक़्श लायलपुरी का नाम सुझाया ,नक़्श साहब ने तीन गाने लिख भी डाले और वे रिकॉर्ड भी हो गए मगर अभी तक उन्हें उनका मेहनताना (रकम ) नहीं मिला था इसकी भनक मदन मोहन जी को लगी तो उन्होंने निर्माता को डांट लगायी, नक़्श को उनकी फ़ीस तो मिल गयी मगर इस बात से खफा होकर निर्माता ने नक़्श साहब को ये कह कर अगला गाना लिखने से मना कर दिया की उनके अब बदले शेष गाने दूसरे गीतकार से लिखवाये जायेंगे आप अब फिल्म के अन्य गाने नहीं लिखें ,जब इस बात की खबर मदन मोहन जी को हुयी तो वे अड़ गए की अगर नक़्श अगर इस फिल्म के अन्य गाने नहीं लिखेंगे तो वे भी अन्य गानों के संगीत नहीं बनाएंगे ,तब निर्माता को विवश होकर इन लोगों से माफ़ी मांगनी पड़ी ! समुद्र के किनारे दोपहर तक बैठ कर नक़्श ने गाना लिखा शाम तक लता की आवाज़ में रिकॉर्ड भी हो गया और जो गीत बना वो था - "रस्में उल्फत को निभाए तो निभाए कैसे "
जिस समय नुसरत फ़तेह अली ख़ान का नाम दुनिया में सिर चढ़ कर बोल रहा था उस समय उनके भतीजे राहत फ़तेह अली ख़ान उनसे गायन की बारीकियां सीख रहे थे.जब भी नुसरत कहीं भी प्रोग्राम पेश करते तो राहत का काम सिर्फ़ अलाप देना होता था.राहत फ़तेह अली ख़ान बताते हैं कि स्टेज पर तो उन्हें डाँट पड़ती ही रहती थी.खाने के बेहद शौक़ीन नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने जी भरकर खाया और जी भरकर गाया. और अपने गाने के अंदाज दे गए अपने भतीजे राहत फतेह अली खान को .
प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद (25 दिसम्बर 1919)मात्र 17 साल की उम्र में ही मुंबई संगीतकार बनने ,घरवालों को बिना बताये आ गए थे ,ये वो दौर था जब फिल्म या इससे जुड़े क्षेत्रों में जाने वालों को अच्छा नहीं समझा जाता था , इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है की जब घरवालों ने इनकी शादी तय की तो नौशाद से यह कहा की वधूपक्ष वालों को उन्होंने यह कहा है की लड़का दर्जी है और मुंबई में सिलाई का काम करता है ,और उनसे पूछे जाने पर उन्हें भी यहीं बताना है , इस तरह हुयी इनकी शादी !
जावेद अख्तर का नाम आते हीं प्रसिद्ध गीतकार के रूप में बनी इनकी छबि जेहन में कौंध जाती है ,पर जावेद साहब गीतकार बनने से पहले फिल्मों की कहानियां लिखते थे ,पर इनका नाम परदे पर नहीं आता था ,ये फिर भी खुश थे ! बाद में उनकी जोड़ी सलमान के पिता और इनके दोस्त सलीम खान के साथ सलीम-जावेद के रूप में बन गयी ! अमिताभ अभिनीत जंजीर की कहानी भी इसी जोड़ी ने लिखी और अमिताभ बच्चन के साथ-साथ इस जोड़ी का नाम प्रसिद्ध हो गया !
जावेद साहब उस वक्त भी शायरी करते थे पर उनकी शायरी उनकी डायरी तक हीं सिमित थी ,जब यश चोपड़ा ने फिल्म -सिलसिला बनाना शुरू किया ,तो किसी दोस्त के कहने पर जावेद को अपने बंगले पर बुलाकर कहा की आप कहानी के साथ -साथ अच्छी शायरी भी लिखते हैं ,मैं चाहता हूँ की" सिलसिला "के गीत आप हीं लिखें , और हाँ इस फिल्म से शिव-हरी की संगीत जोड़ी (शिव शर्मा और हरिप्रसाद चौरसिया) भी पहली बार संगीत क्षेत्र में कदम रख रहे हैं !
अगले दिन "देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए' "रिकॉर्ड हुआ, फिर उसके अगले दिन 'नीला आसमा सो गया..! इस तरह जावेद अख्तर कहानीकार के साथ-साथ गीतकार भी बन गए,और जो शायरी उनके डायरी में कैद थे फिल्मों के माध्यम से सामने आ गए !
मन्नाडे से जुड़ी दो रोचक घटनाएं उनके लिए हमेशा यादगार रहीं - एकबार जब फिल्म ' बसंत बहार(1956)" के "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फुले " गाने के लिए उन्हें शास्त्रीय संगीत के महान गायक भीमशेन जोशी को गायन में कमतर साबित करने के लिए गाने को कहा गया ,दरअशल फिल्म में नायक को गायन में जीतते हुए दिखाना था ,और गायक की आवाज़ के लिए मन्नाडे को चुना गया था !तब मन्नाडे ने मन हीं मन योजना बनायीं थी की अगले दिन से हीं वे बिना बताये पुणे चले जायेंगे और किसी को पता भी नहीं चलेगा की मन्नाडे कहाँ गायब हो गए ,और गाने की रिकॉर्डिंग किसी अन्य गायक से करा ली जाएगी !
इसी तरह फिल्म पड़ोसन(1968) के " एक चतुर नार कर के सिंगार" गाने के लिए उन्हें किशोर कुमार से हार जाने को कहा गया , तब फिल्म के निर्माता और निर्देशक अभिनेता महमूद ने दादा को समझाते हुए कहा था की दादा ये आप और मैं हीं नहीं सभी जानते हैं की आपको वास्तविक जीवन में नहीं फिल्म में नायक से हारना है ! हालाँकि किशोर द्वारा बनाये उस गाने के संगीत में सरगम और तान का वास्तविक संगीत से कोई लेना देना नहीं था !
हमेशा यादगार रही ,मदन मोहन नक़्श लायलपुरी के शायरी के बड़े प्रशंसक थे ,फिल्म "दिल की राहें" के लिए जब उन्हें संगीत बनाने की जिम्मेवारी सौपीं गयी तो उन्होंने फिल्म के गीत लिखने के लिए नक़्श लायलपुरी का नाम सुझाया ,नक़्श साहब ने तीन गाने लिख भी डाले और वे रिकॉर्ड भी हो गए मगर अभी तक उन्हें उनका मेहनताना (रकम ) नहीं मिला था इसकी भनक मदन मोहन जी को लगी तो उन्होंने निर्माता को डांट लगायी, नक़्श को उनकी फ़ीस तो मिल गयी मगर इस बात से खफा होकर निर्माता ने नक़्श साहब को ये कह कर अगला गाना लिखने से मना कर दिया की उनके अब बदले शेष गाने दूसरे गीतकार से लिखवाये जायेंगे आप अब फिल्म के अन्य गाने नहीं लिखें ,जब इस बात की खबर मदन मोहन जी को हुयी तो वे अड़ गए की अगर नक़्श अगर इस फिल्म के अन्य गाने नहीं लिखेंगे तो वे भी अन्य गानों के संगीत नहीं बनाएंगे ,तब निर्माता को विवश होकर इन लोगों से माफ़ी मांगनी पड़ी ! समुद्र के किनारे दोपहर तक बैठ कर नक़्श ने गाना लिखा शाम तक लता की आवाज़ में रिकॉर्ड भी हो गया और जो गीत बना वो था - "रस्में उल्फत को निभाए तो निभाए कैसे "
जिस समय नुसरत फ़तेह अली ख़ान का नाम दुनिया में सिर चढ़ कर बोल रहा था उस समय उनके भतीजे राहत फ़तेह अली ख़ान उनसे गायन की बारीकियां सीख रहे थे.जब भी नुसरत कहीं भी प्रोग्राम पेश करते तो राहत का काम सिर्फ़ अलाप देना होता था.राहत फ़तेह अली ख़ान बताते हैं कि स्टेज पर तो उन्हें डाँट पड़ती ही रहती थी.खाने के बेहद शौक़ीन नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने जी भरकर खाया और जी भरकर गाया. और अपने गाने के अंदाज दे गए अपने भतीजे राहत फतेह अली खान को .
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